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ठग ली धरती
 

 

उमड़े घुमड़े धूम मचा दी
ढोल ढिंढोरा हुई मुनादी
बरसे ना
क्यों ठग ली धरती ?

पल छिन बीते रैन बिताई
ताल तलैया करें दुहाई
बाग़ बगीची चरमर देहरी
सीखी कैसी रीत ढिठाई
तरसे ना
क्यों ठग ली धरती ?

दादुर टेरे अलख जगाए
थका मयूरा पर फैलाए
कैसा मन भर मान किया रे
धरे सकोरे भरे भराये
छलके ना
क्यों ठग ली धरती ?

बाट जोहते बैठा सावन
पिघला ना पत्थर सा तन –मन
भूल गए क्यों धर्म निभाना
बूँद–बूँद अमृत बरसाना
सरसे ना
क्यों ठग ली धरती ?

- शशि पाधा
२१ जुलाई २०१४

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