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लिये जुलाई आ जाओ
 

 
बहुत हुए हम मई-जून
अब लिये जुलाई
आ जाओ!

जानता हूँ तुम धरा हो
गूँज को तुम मान दोगी
मैं गगन की रीतियों को
शब्द दूँगा,
तुम सुनोगी

कहो तुम्हीं फिर मेघ मुखर मैं
घोष स्वरों में बोलूँ क्या!
देखो फिर से बारिश आयी
भूल रुखाई
आ जाओ!

बिन तुम्हारे क्या भला हूँ
मैं सदा से जानता हूँ
बारिशों में
बूँद की है क्या महत्ता
मानता हूँ

भरे हुए वृक्षों-तालों के
तृप्त स्वरों में मुझको सुन
आकुल हुई नदी बन थामो
बाँह-कलाई,
आ जाओ!

कुछ समझ पाया न अबतक
बादलों की भावनाएँ
सच यही है,
मूढ़ पर्वत दे रहा था
यातनाएँ!

सदा रहा कंकड़-पत्थर
गीलट-कागज में खोया जो
उसी निपट रूखे अहमक ने
सेज सजाई,
आ जाओ!

- सौरभ पांडेय
२१ जुलाई २०१४

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