अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


रिमझिम बरसात में
 

 

आज धरा पर
झुका गगन है, पुनर्मिलन को आतुर मन है ।
क्षितिज कसा ज्योँ बाहुपाश हो
आवेशित दोनोँ का तन है

सूर्य निकट आता है
ज्योँ ज्योँ, विरह तपिश बढती जाती है
दृष्टि कशिश पारे के कण सी - ऊर्ध्वमुखी चढती जाती है
पर नभ को सब ज्ञात धरा का ध्वंस
यही जो जीवन धन है

घन नभ के मृदु
आभासोँ का सांकेतिक सम्प्रेषण जैसे
या कि धरा के तप्त बदन पर झुलसा आँसूकण घन जैसे
नभ ही घन है. घन ही जल है
या कह लो जल ही जीवन है

खग पशु वृक्ष लता
मेँ धरती बहु विधि हर्ष प्रदर्शित करती
शैल शिखर या धरा उचक कर नभ का है आलिंगन करती
घन गर्जन से ताल मिलाता
मुदित मयूरों का नर्तन है

- पल्लव
२१ जुलाई २०१४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter