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बादल घुमड़कर
 

 

अन्ततः, आ ही गए
बादल घुमड़कर
श्रावणी शृंगारिका से
केश लहराते हुए

लगी झरने बूँद
मेघों को चुआती
उठी सौंधी गंध
धरती के बदन से
ले रहे अंगड़ाइयाँ
अब पेड़-पौधे
टहनियों ने तृप्ति
पाई है गगन से

जग गया यौवन, कुँवारा
छोड़ तन्द्रा
रोम-रन्ध्रों से मदालस
रागिनी गाते हुए

आ गईं बौछार
खिड़की खोलकर अब
छू दिए जो अंग
मदमाने लगे हैं
तोड़कर अँगड़ाइयों
की वर्जनाएँ
मेह, हर्षित देह
सहलाने लगे हैं

बाल, वृद्धों में पुलक,
पावस-परस से
लाज से सिमटी नवेली
नैन शरमाते हुए

- जगदीश पंकज
२१ जुलाई २०१४

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