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बरसता है बादल
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आज यहाँ, कल वहाँ बरसता है
बादल
अपनेपन के लिए तरसता है बादल
कभी-कभी वह धरती का मन खूब भिगोता है
लगता जैसे मन के रीतेपन पर रोता है
कभी खीज कर गरज-गरज कर ओले बरसाता
आमन्त्रण पाता धरती का, प्यार नहीं पाता
कभी क्षुब्ध, तो कभी
सरसता है बादल
किसको पीर सुनाये, किसको मन की समझाये
क्यों सागर से मोती लेकर घाटी तक आये
उमड़-घुमड़ कर हाव-भाव मन के जतलाता है
किन्तु किसी के मन के अंदर कहाँ समाता है
कैसी-कैसी पीडाओं के थाल
परसता है बादल
लौट-लौट जाता है फिर-फिर, फिर-फिर आता है
और प्यार से रिमझिम वाले गीत सुनाता है
वह अषाढ़ भी लाता, सावन भी ले आता है
लेकिन किस विरहिन के मन को, कब वह भाता
है
प्यास बुझा प्यासे खेतों की खूब
हरसता है बादल
- धनञ्जय सिंह
२१ जुलाई २०१४ |
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