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इतना ही कहना है
 

 

सब कुछ
बेकार है
इस कंक्रीट के पेवमेंट पर
बारिश की बूँद, बर्फ के कतरे, सर्दी की धूप।

सड़क के विभाजक पर
अनुशासन से परे होकर नहीं उग सकता एक पेड़
गिरे हुए पत्ते उसके अपराध हैं।

सड़क के किनारे उगे पेड़
सड़क की बढ़ती आकाँक्षाओं की भेंट हो रहे हैं
आसमान की आग का एक एक कतरा सोख उबल रहा है
सीमेंट का जंगल।

बारिश एक बोझ है
जिससे बचकर निकल जाना चाहता है
हरेक बाईक सवार
सबवे में उसके भर जाने से पहले।

जंगलों में सूखा पड़ा है
दीमक की एक कोलोनी
कुतर रही है लगातार मौसम की लकड़ी।

वातानुकूलित कार अपना मौसम
अपने साथ लिए चलती है
उसके इंधन की गंध में
जंगल के आखिरी संस्कार की बू है।

कल काम पर जाने से पहले
हो सके तो कुछ रोप देना इस बारिश में
जिसके काम आ सके यह धूप
और गिरती हुई ये बूँदें
तुम्हारे एसी कमरे से बाहर आती एक लपट
में जो कर सके एक सूराख।

इस गर्मी में बस इतना ही कहना है इस शहर से।

-परमेश्वर फुँकवाल
२८ जुलाई २०१४

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