अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


वर्षानुभूति की एक शाम
 

 

फिर किसी के
घने काले कुंतलों-सी
घिर रही उन्मन
हृदय के कुंजवन में
आज यह बरसात वाली शाम
1
पारिजातों की विरल परछाइयों में
राह भूले ऐन्द्रजालिक की भटकती मोहिनी सी
अस्तमित रवि की
सुनहरी किरन उलझी
फिर अरूप अनाम
1
फिर किसी के
अलक्तक रंजित पगों के
नूपुरों की मृदु क्वणन से
खिल उठा
यह गंधमादन
प्राण का निस्पंद हरसिंगार
1
कौन-सी उद्दाम
उच्छृंखल तरंगे
कर गयीं इस विजन मन के तीर का संस्पर्श
जिससे
विनत नयनों से
कपोलों पर ढुलकते मोतियों से
वे विदाई के सलज जलबिन्दु
आकर भर गये फिर
रिक्त सुधियों का मसृण सीमान्त
1
प्यासे मेघ-सी
घिरकर न बरसीं
तृप्त की कादम्बिनी उन्मन घटाएँ
एक पल भी
रह गया सूखा
अधूरी लालसाओं का विरस मरुप्रांत 
1
- देवेन्द्र शर्मा इंद्र
२८ जुलाई २०१४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter