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श्यामल मत्तगयंद |
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अम्बर में फिरने लगे,
श्यामल मत्तगयन्द।
देख रसा पढ़ने लगी, खुशहाली के छंद।
खुशहाली के छंद, मगन हो चपला नाची।
उठ बैठे तज नींद, कुम्भकर्णी हल माची।
कह 'मिस्टर कविराय', वृष्टि ने रचा स्वयंवर।
कोटिक बजे मृदंग, नाद गूँजा छिति अम्बर।
निखरी सँवरी लग रही, आज समूची सृष्टि।
कैसा जादू कर गयी, जादूगरनी वृष्टि।
जादूगरनी वृष्टि, नैन से करे इशारे।
अनगिन तड़ित कमन्द, पकड़ उतरे जलधारे।
कह 'मिस्टर कविराय', शस्य श्यामलता बिखरी।
कर सोलह श्रृंगार, प्रकृति बाला है निखरी।
कजरारे घन देखकर, गोचर हुए विभोर।
वीरबहूटी केंचुए, दादुर चातक मोर।
दादुर चातक मोर, क्रौञ्च क्रे क्रे कर बोले।
नभ छू रहे पतंग, कर्ण रस झिल्ली घोले।
कह 'मिस्टर कविराय', चले आतप पर आरे।
झूम झूम कर वृष्टि, करें जलधर कजरारे।
- रामशंकर वर्मा
२८ जुलाई २०१४ |
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