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बरखा आई |
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१.
नित हौले हौले, दादुर बोले, लागत है बरखा आई।
नभ नीरद छाये, जल भर लाये, धरती दुल्हन शरमाई।
चलती मतवाली, काली-काली, घोर घटाएँ बादल में।
आती नवयुवती, छुपती-छुपती, नीर समाये आँचल में।
२.
बरसात हुई कल, सजा लिए हल, खेतों को जोतन धाये।
खोदा है कण-कण, बीजारोपड़, कर किसान फिर मुसकाये।
तपती दोपहरी, गरमी गहरी, जेठ मास के दिन बीते।
आया है सावन, जो मनभावन, भरे ताल, जो थे रीते।
३.
अब धरती चूमें, पादप झूमें, हर्षित है डाली डाली।
यह दृश्य मनोहर, लेता मन हर, चहुँ दिश फैली
हरियाली।
सब बंधन टूटे, अंकुर फूटे, नवयौवन-सा छाया है।
सब बेल बिताना, लतिका घाना, हर पौधा शरमाया है।
४.
बहती सरि धारा, तेज अपारा, बिकल विहग सब अकुलाये।
जब पानी बरसा, मानस हरषा, झरना भी कलकल गाये।
पर्वत अति सुंदर, खोह व कंदर, बैठे हैं सब सज-धज कर।
उस गिरि के ऊपर, चिडियों के पर, होते हर पल फर-फर-फर।
५.
जब पंछी चहके, बगिया महके, पवन चले फिर पुरवाई।
रिमझिम-सी गिरती, बूँदें धरती, अब बरसा की रितु आई।
बागों में तितली, पतली-पतली, सुमनों पर डेरा डाला।
जिस जगह अडी वो, गंध उडी वो, सृष्टी ने उसको पाला।
६.
गरजन अति भारी, जो भयकारी, करती है व्याकुल मन को।
दमकत है दामिनि, बार-बार घनि, पीडित करती है मन को।
क्यों याद पिया हा!, आज पपीहा, दिलवाता है रो-रो कर।
ऊपर से सावन, आग लगावन, गिरता है क्यों खुश होकर।
- पवन प्रताप सिंह 'पवन'
२८ जुलाई २०१४ |
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