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मैं ही तो तेरा सावन हूँ |
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देख रहा क्या आँखें
फाड़े, ओ मानव मूरख नादान।
मैं ही तो तेरा सावन हूँ, आज मुझे तू ले पहचान।
मौन खड़ा हूँ लेकिन कल तक, पवन किया करती थी शोर।
शुरू नहीं होता था सावन, बादल देते थे झकझोर।
उधर चमक ना पाती बिजली, इधर नाचते वन में मोर।
मोर लापता वन गायब अब, कहाँ ले गए काले चोर।
दादुर और पपीहे गायब, झींगुर भी भूला है तान।
टर्र-टर्र वाले मेंढक भी, बाँध रहे अपना सामान।
बरखा बरसी अभी नहीं थी, आती थी नदियों में बाढ़।
पगडण्डी-कीचड़ का रिश्ता, इस मौसम में खूब प्रगाढ़।
मैं लाता हूँ नागपंचमी, तू डसता है बनकर नाग।
मैं ही लाता हूँ हरियाली, जिसे जलाता तू बन आग।
चोट लगी वृक्षों को जब भी, होता घायल यह आकाश।
रो न सकी हैं आँखें इसकी, बादल इतना हुआ हताश।
आने वाले कल से छीनी, तू ने कलसे की हर प्यास।
आज मनाता जल से जलसे, कल की पीढ़ी खड़ी उदास।
कौन करेगा अर्पण-तर्पण, कौन करेगा तुझको याद।
पीढ़ी ही जब नहीं रहेगी, कौन सुनेगा तब फरियाद।
तेरे हित में बोल रहा हूँ, कर्मों को पावन कर आज।
अहम् त्याग कर फिर से मानव, सावन को सावन कर आज।
अरूण कुमार निगम
२८ जुलाई २०१४ |
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