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बूँद झर झर
 

 

नित नवल श्रृंगार करती है धरातल सुंदरी।
मुग्धकारी रूप यौवन ज्यों लिए है उर्वशी।

मुस्कुराते फूल कलियाँ नृत्य करती है धरा,
व्योम में जैसे बजाते हैं पयोधर बाँसुरी।

झील नदियाँ और तरुवर हैं भरे बरसात में,
बूँद झर झर गिर रही है बादलों से नेह की।

इक तरह हैं प्रेम के आनंद में प्रेमी युगल,
वेदना से इक तरफ टूटी हुई है प्रेयसी।

लाभदाई है बहुत तो हानिकारी भी बहुत,
मौज-मस्ती में भिगोये और परसे त्रासदी।

कवि ह्रदय करने लगे हैं छंद गीतों का सृजन,
भावनाओं से प्रभावित हो उठी शब्दावली।

- अरुण शर्मा अनंत
२८ जुलाई २०१४

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