धो डाले
कपड़े सभी, दिन था जब इतवार
अब तक वे सूखे नहीं, दिवस हो गये चार
ज्यों ही निकली धूप तो, रखा सूखने माल
वानर टोली आ गई, चट कर डाली दाल
वर्षा में जाना पडा, था आवश्यक काम
वापस आये तो हुआ, नजला और जुकाम
टपके पानी छत्त से, कमरे मेँ चहुँ ओर
सो न सके हम रात भर, जब तक हुई न भोर
सावन में जाने लगे, साजन यदि परदेस
रस्से से बाँधो उसे, लगे न मन में ठेस
सावन में आएँ नहीं, साजन अपने द्वार
बीमारी का झूठ ही, भेजो उनको तार
इस मौसम में यदि मिलें, गर्म पकौडे चाय
सच मानो बरसात का, बहुत मज़ा आ जाय
-शरद तैलंग
३० जुलाई २०१२ |