घहर घहर घन, घिरी चहुँ ओर
रहे,
उमड़ घुमड़ घटा, अति अकुलाई है
छेड़ कजरी मल्हार, धार रूप पे सिंगार
सखियों की फ़ौज देखो, अति उमगाई है
झूल रहीं बारी बारी, नाच रहीं दे दे तारी
गेंदन के फूलन से, झूलनी सजाई है
मन मे उमंग भर तन मे तरंग धर,
सुमर किशन राधा अति शरमाई है
श्याम घन
माला बिच दामिनी दमकती ज्यों
घनश्याम अंक गोरी राधिका समा रही
बरखा की बूँद मानो टोली गोप-गोपियों की
नाच नाच नाच मुद् मंगल मना रही
पवन की डोरियाँ डोलाय रहीं झुलनिया
कृष्ण-कृष्णप्रिया द्वै को झुलनी झूला रही
लख लख प्रकृति के रूप ये अनूप गूँज,
राधे-कृष्ण, राधे-कृष्ण चहूँ दिसी छा रहीं
कुटिया कुटीर डूब रहे दृग सलिल में,
कब प्रिय मेघ मेरे अँगना पधारोगे
जलती अवनि बिन जल प्यासी सूख रही
कब इन्द्र देव कृपा अपनी उतारोगे
पावस में पावक से खेत-खेत जल रहा
धान बाजरा की कब अरजी विचारोगे
ताप संग जल रहे स्वप्न कौल आस सभी
बोलो देवराज कैसे विनती स्वीकारोगे
सीमा
अग्रवाल
३० जुलाई २०१२ |