हरियल हरियल प्रकृति है (दोहे)

वर्षा मंगल
 

सागर से भर ले चले, मेघ वारि जंगाल
उलट दिए नभ शृंग से, वसुधा हुई निहाल

हरियल हरियल प्रकृति है, सरस हुए तृन पात
नवयौवन के भार से, झुके लता तरु गात

यूँ तन्वंगी दूब पर, मोती सी जल बूँद
ज्यों अभिसारी नायिका, मुदित हुई दृग मूँद.

श्यामल धूसर मेघ को, निरखत हुए विभोर
झींगुर वीरबहूटियाँ, दादुर चातक मोर

वर्षा मंगल पर्व पर, बजे नगाड़े मेघ
नाचे वर्षा सुंदरी, घर घर माँगे नेग

चटक हरित पट ओढ़ी कै, मुदित बाग बन गैल.
काँधे हल माची लिए, चले छबीले बैल

खेत लबालब नीर से, बोले मस्त किसान
चले पलेवा खेत में, रोपेंगे अब धान

बागों में झूले पड़े, कजरी आल्हा तान
ननद भाभियाँ छेड़तीं, पेंग चढ़े असमान

- रामशंकर वर्मा
३० जुलाई २०१२

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter