कितनी
चिन्ताओं ने
मन में फन फैलाए,
तन को छूकर निकली
जब-जब बरसात।
कितनी चिप-चिप-चिप औ
उमस भरे मौसम में
बहती खपरैलों में
जमा हुई गंदगी;
टिपिर-टिपिर सारा घर
शीलन में डूब गया
गाँव में घर-घर की
ऐेसी ही जिन्दगी;
मन तो अनुरागी है
राग पिए, राग जिए
बारिस ही जनती है
अपना परभात।
स्मृतियों ने मन में
चित्र उकेरे कितने
चहल-पहल के उत्सव
निशदिन की बात;
बँट-बँट छोटे-छोटे
खेत हुए अनबन में
खाली होते जाते
दोनो ही हाथ;
बिजली की लप-लप-लप
छाती को चीर रही
पूरी निर्दयता से
करती संघात।
-राजा अवस्थी
३० जुलाई २०१२ |