हज़ार गीत सावनी, रचे सखी फुहार ने,
झुलाएँ झूल,
झूमके, लुभावनी बहार में।
विशाल व्योम
ने रची, सुदर्श रास रंग की,
जिया प्रसन्न हो उठा, फुहार में उमंग की।
मयूर मस्त नृत्य में, किलोलते कतार में,
अमोघ मेघ
गीतिका, सुना रहे मल्हार में।
चढ़ी लता
छतान पे, बगान को चिढ़ा रही,
वसुंधरा, हरीतिमा, बिखेर मुस्कुरा रही।
खिले गुलाब झुंड में, झुकी डंगाल भार में,
कली-कली
हुई विभोर, मौसमी बयार में।
दिखी अधीर
कोकिला, कुहू कुहू पुकारती
सुरम्य तान छेडके, दिशा दिशा निहारती
कहीं सुदूर चंद्रिका, घनी घटा की आड़ में,
कभी दिखी
कभी छिपी, धुली हुई फुहार में
सजीं पगों में
पायलें, कलाइयों में चूड़ियाँ,
मिटा गईं ये बारिशें, दिलों की तल्ख दूरियाँ
बढ़ी नदी उमंग से, बहे प्रपात धार में,
मनाएँ पर्व
आ सखी, अनंत के विहार में
- कल्पना रामानी
३० जुलाई २०१२
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