वर्षा के हाइकु

वर्षा मंगल
 

घटाटोप से
नभ पे छितराए
बूँदों के तार

तरु शाखों पे
कोयल कूके-कुहू
डोले बयार

ताल पे झूमे
मोर-मोरनी संग
लगे त्यौहार

पाखी सा उड़े
भीगा- भीगा सा मन
नभ के पार

धरा ने ओढ़ी
हरी हरी चूनड़ी
पी- जलधार

-डॉ. सरस्वती माथुर
 

सुन ओ वृष्टि !
नभ बरसे आग
अब तो जाग?

धूसर नभ
लू हरती है प्राण
मेघा ही त्राण।

बरखा रानी
आ झूमके बरसो
व्याकुल प्राणी।

आई बरखा
भरे ताल-तलैया
कागज़-कश्ती

बरसा मेह
भीगी-भीगी रूत में
भीगा है दिल

-सुशीला शिवराण
३० जुलाई २०१२

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