सावन की
अठखेलियाँ, अब गुमसुम, अब शोर
बिन सूरज फिर आ गयी, भीगी भीगी भोर
भीगी भीगी भोर थी, अभी चटकती धूप
ये जीवन का तौर है, पल पल बदले रूप
ये सावन है सोलवाँ, कर सोलह शृंगार
ये नदिया बरसात की, बहनी है दिन चार
ये सावन है हाथ में, पूरे कर सब चाव
क्या जाने कितना चले, ये कागज की नाव
कहीं टपकती झोंपड़ी, कहीं चल रहे दौर
ये सावन कुछ और है, वो सावन कुछ और
बिजली कड़की जोर से, घिरी घटा घनघोर
दबे पाँव बाहर हुआ, मेरे मन का चोर
बादल बरसा टूट कर, नेह भरा अनुबंध
हुलस हुलस नदिया बही, टूट गये तटबंध
-अश्वनी शर्मा
३० जुलाई २०१२ |