ओ प्रवासी
ओ प्रवासी चल पड़े
तुम गा अहिंसा गान
सिसकती-सी मूक आहों
के लिए अरमान
स्वर्ग-पथ की राह ली
तज जगत का सुख मान
निठुर कैसा है जीवन की
अवधि की का अवसान
मृत्यु को साथी बना कर
तुम खड़े उस पार
करुण क्रंदन कर रहा
जग आह! आह! पुकार
स्वप्न उसके हैं अधूरे
शेष कितनी भूल
महल टूटे हैं पड़ी है
खंडहरों पर धूल
छोड़ आधी-सी कुटी
तुम कर चले प्रस्थान
कौन जाने उसका होगा
पतन या उत्थान
आज उसकी याचना पर
जब तुम्हीं हो मौन
इन अधूरी मंज़िलों को
मोल लेगा कौन
भीगी पलकों से खड़ा ले
भग्न हिय का भार
भेंट उसकी है अकिंचन
आँसू ही दो-चार
हो चले ओझल दृगों से
कर अज्ञात-वास
अब प्रवासी विदा तेरा
जीवन ही प्रवास।
पुष्पा भार्गव
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