इस युग का चमत्कार
एक आदमी था जो आम, आदमी-सा था साधारण,
पर साधारण होने पर भी था वह बहुत असाधारण।
तब परतंत्र देश भारत था जीता था अपमानों में,
गिनती अपनी कहीं न होती थी स्वतंत्र इंसानों में।
देख दुर्दशा यह स्वदेश की वह फकीर बन निकल पड़ा,
उसके पीछे-पीछे जनता का सागर भी उमड़ पड़ा।
मुड़ जाता वह जिधर, उधर ही मुड़ जाती जनता सारी,
बोल 'महात्मा गांधी की जय' कहते जाते नर-नारी।
जन-जन में उसने आज़ादी की यों ज्योति जगाई थी,
बिना तीर-तलवार तोप के उसने लड़ी लड़ाई थी।
हथियारों के बिना लड़ाई कर आज़ादी दिला गया,
सत्य अहिंसा के अस्त्रों का वह प्रयोग कर दिखा गया।
था फकीर, लेकिन लकीर का वह फकीर था कभी नहीं,
पड़ते गए जहाँ पग उसके खिंचती गई लकीर वहीं।
वह था हाड़ मांस का पुतला इसी भूमि पर जन्मा था,
वह इस युग का चमत्कार था एक अजीब करिश्मा था।
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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