बापू
हर सदियों का दासत्व,
देश के सिर का पर्वत-भार हरा,
ज्वाला-जर्जर जीवन में
तुमने अमृत-मेघ-भंडार भरा।
तुम सत्य-सिंधु जिसकी लहरों
ने किया अमरता का प्रसार,
तुम महादेव, जनगंगा को
जिसने मस्तक पर लिया धार।
तुम मानवता के शुभ मुहूर्त,
निर्मलता को निर्मल करते,
करते पवित्रता को पवित्र,
आशीषों के निर्झर झरते।
अवरुद्ध व्योम-पथ मुक्त हुआ,
किरणों में स्वर के प्राण सजे,
सीमाएँ सीमाहीन हुई,
युग की वाणी के तार बजे।
उदयाचल नई ज्योति लेकर
अभिनंदन को दौड़ा आया,
बलि की मुक्ताएँ ले, यौवन का
पारावार उमड़ आया।
तुमने जनता को मुक्ति-समर
में मस्तक देना सिखलाया;
ललनाओं ने सिंदूरों की
होली का स्वधा-मंत्र पाया।
हे देव! मरी मिट्टी में तुमने
नई चेतना चमकाई;
की ऐसी सात्विक क्रांति,
न जिससे बड़ी कथाओं ने गाई।
ओ तुम अशेष के अभियानी!
ओ दिव्य स्वप्न के संधानी,
दासों के महाद्वीप में तुमने
कैसी ज्वाला पहचानी,
साहस के बंद कपाट भस्म
कर मन पर छा जाने वाली,
समिधा की अरुण तुला पर
खंडित ग्रीवा तुलवाने वाली।
कब रुके देश के चरण, झुका
कब विद्रोही मस्तक उभरा;
तूफ़ानी गति से चढ़ा, न फिर
संघर्ष-सिन्धु का जल उतरा!
- रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
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