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किरणों की अगाध नदी
 
धरती कभी न छोड़े चलना
सूरज कभी न जलना

नवल मुकुल शाखों पर फूटें
पतझड़ कोई बाग न लूटे
दिनकर के धरती से रिश्ते
सदा हरे हों कभी न टूटें
प्रेम की साँसों युगों युगों तक
जीवन में ढलना

गिरें चढ़ें ऋतुओं के पारे
हालातों से हम ना हारें
कर्म रँगेगा जीवन सारे
उस से ही चमकेंगे तारे
सुबह गवाँ दी सोने में तो
शाम हाथ मलना

रात की छाती से ही बहता
स्वप्नों का दुधिया सोता है
अँधियारे के बाद सुबह हो
ऐसा कहाँ सदा होता है
काल की सदियों से आदत है
बगुले सा छलना

धरा धुंध से पटी हुई हो
तमस दृष्टि से सटी हुई हो
किरणों की अगाध नदी फिर
चाहे तट से कटी हुई हो
पौष माघ की सख्ती में
फागुन तुम पलना

- परमेश्वर फुँकवाल
१२ जनवरी २०१५

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