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ऐ सूरज बता दे
 
नज़र को नज़ारे नहीं दीखते अब
कि चारों तरफ बस धुआँ ही धुआँ है
सुलगती है धरती बिरह की अगन में
ए सूरज बता दे छिपा तू कहाँ है ?

अकर्मण्यता का लगाकर बिछौना
कोहरे की चादर ये किसने बिछाई
नहीं चुन रही ओस के मीठे दाने
किरणों पे बंदिश ये किसने लगाई
जमी जा रही है क्यों संवेदनाएं
हरा मन धरा का धवल हो गया है
सुलगती है धरती बिरह की अगन में
ए सूरज बता दे छिपा तू कहाँ है ?

समय ने पलट दी है बाज़ी समूची
खटकती थी जो धूप अब वो सुहाए
जहां भी बरस जाए सूरज ज़रा सा
ज़मीं का वो टुकड़ा सुनहरा रिझाये
जिसे कोसते थे उसे ढूंढते सब
बदलता है पल पल ये कैसा जहां है
सुलगती है धरती बिरह की अगन में
ए सूरज बता दे छिपा तू कहाँ है ?

- निशा कोठारी
१२ जनवरी २०१५

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