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वही पुराना सूरज
 
वही पुराना सूरज अपना
देखो फिर से आया है

माथ चूमती बड़े लाड़ से
वो ही स्नेहिल गर्माहट
दूर भागती जान पड़ी है
क्रूर कुहासे की आहट

अँगड़ाई लेता पंछीदल
हर्षित हो बौराया है

गुनगुनाहटों के नवअंकुर
फूट रहे मन-आँगन में
प्रीत लजाती रुनझुन है
ऋतु के सतरंगी दामन में

धुँधले झोंकों ने भी
मादक रूप गुलाबी पाया है

आधे पेट नहीं सोयेगी
झोंपड़पट्टी में रैना
नहीं दिहाड़ी सर्द पड़ेगी
सोच रहे आतुर नैना

ऊँचे स्वर में रस्तों ने
तड़के ही आज बुलाया है

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
१२ जनवरी २०१५

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