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सूरज काका |
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सूरज काका गिर्द तुम्हारे
चलती सृष्टि सकल।
छोड़ खाट-बिस्तर सब करने
लगते काज-टहल।
कुहरा हो, बादल हों, आँधी
हो, बरसातें हों
नागा करते नहीं समय से
प्रतिदिन आते हो
तुम छूते मुस्काने लगते
रूठे हुए कमल।
जगते घाट-पुजारी मंदिर
में बजते घंटे
उठते पायल-पाँव खनकते
कंगन पनघट पे
स्नान-ध्यान कर साधु अरपते
तुम्हें अर्घ्य का जल।
सुस्ताते से पथ ढोने
लगते पदचापों को
गाँव भागते शहर जुटाने
रोटी-प्याजों को
तुमको पा कलरव करता
गा उठता है जंगल।
भाँप तुम्हारी गति बढ़ती गति
हाटों-बाटों में
बता रहे पंडितजी तुमसे
ही यश हाथों में
लाल-भभूका देख तुम्हें
जग में मचती हलचल।
- कृष्ण नन्दन मौर्य
१२ जनवरी २०१५ |
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