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सूरज बाबू
 
कहाँ छिपा बैठा है सूरज
चिठ्ठी उसको भिजवायें

ठिठुर रही है
देह भोर की
किरण गात कुहराया है
पंछी छिपे हुए कोटर में
भूखा मन
सुबकाया है

दोहरी कमर हुई बरगद की
बैसाखी भी काँप रही
जोड़ जुड़े हैं फेविकोल से
मॉं घुटनों
को जॉंच रही

संग चलो तुम पवन डाकिये
घर - घर उसको दिखवायें

लगा रखी है
कुंडी घर ने
खिड़की द्वारे डरे हुए
बनी देह की कुल्फी कैसी
पौधे भी अब
झरे हुए

जमी बर्फ नेताओं पर भी
लकवे ने जैसे मारा
आम आदमी बिन कंबल भी
अब तक ना
कैसे हारा

हरेक झोपडी को चलकर के
धूप तनिक तो दिखलायें

- गीता पंडित 
१२ जनवरी २०१५

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