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सूरज बाबू
 
सूरज बाबू बाहर आओ
घाम अंजुरी भर दे जाओ

पंछी पंख फुलाए बैठे
श्वान पुआल दबाए बैठे
काम -काज सब ठप्प पड़ा है
ठिलिया वाले ठिठुरे-ठिठुरे
बेबस किधर छुपाएँ ख़ुद को
इनको कुछ
राहत दे जाओ

तुमको अर्घ्य चढ़ाती थी नित
दादी की तबियत है ढीली
तड़के धुंध लपेटे आती
घर की बाई सिकुड़ी सिकुड़ी
झुँझलाती चटकाती बर्तन
अपनी एक
छुअन दे जाओ

झोपड़ियों को कर डाला है
बेघर जैसा शीत-लहर ने
रात बहुत रोती हैं सड़कें
साँसें जैसे लगीं ठहरने
आँसू आकर पोंछो इनके
थोड़ी सी
चाहत दे जाओ

- भावना तिवारी
१२ जनवरी २०१५

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