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         उर में उजियाले


सुधियों के दीपक जलते हैं
उर में उजियारे पलते हैं

है स्वर्ग तुम्हारे पाँव तले, तुमसे हैं दिवस-रात उजले
तुम हो तो जीवन-धारा है यह श्वास तुम्हारे संग चले
शत शत रवि नित्य निकलते हैं
उर में उजियारे पलते हैं

पथ में कुछ शूल चुभे होंगे पाहन प्रतिकूल बिछे होंगे
कमनीय क्लांत है गात प्रिये पग होकर शिथिल थके होंगे
थककर फिर राही चलते हैं
उर में उजियारे पलते हैं

बादल-बिजुरी के कम्पन में भय व्याप्त हुआ होगा मन में
निर्भय होकर तुम आ जाना ज्यों बंसी सुन गोपी वन में
जो मिले न वे कर मलते हैं
उर में उजियारे पलते हैं

हम फ़िक्र न करते भूलों की अभिलाषा सुरभित फूलों की
है यह अभीष्ट प्रिय संग रहो परवाह न हमें उसूलों की
हम कड़ी आँच में ढलते हैं
उर में उजियारे पलते हैं

- प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
१ नवंबर २०२४
 

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