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         अपराजित


हो अंधकार कितना भी भ्रामक पथरोधी
आलोक रहेगा सदा सर्वदा अपराजित

तम पोषक उल्लू यत्र-तत्र मँडराते हैं
उन्माद बढ़ाते गली-गली चिल्लाते हैं
मौसम परपीड़क दिन घायल रातें छलनी
हर दिन चिंतन के दीप मार्ग दिखलाते हैं
भ्रम के युग में सत्य का सूर्य ले हाथों में
हर गीत करेगा निखिल विश्व
को आलोकित

हर उच्छृंखल क्रूरता ताटका-सी न्यारी
हर संहारक प्रतिमा भरती है किलकारी
उद्दंड फेसबुक की खिड़की पर जड़ा हुआ
हर मुखड़ा नकली हँसता लगता रतिहारी
भ्रांति की बेड़ियाँ छिन्न-भिन्न करने फिर से
सूर्य की रश्मियाँ
हृद-नभ में होगीं दीपित

धर्म की धारणा जैसे हो अस्तित्वहीन
रामायण के आदर्शों का शुचि मन-मलीन
सत्य के प्रतीकों की आँखें हैं झुकी हुईं
सिद्धांत पुरातन आज हुए हैं अर्थहीन
नवगीत सुनाएगा गीता फिर से युग को
दुविधाओं की जंजीरें
टूटेंगी निश्चित

- श्याम सनेही लाल शर्मा
१ नवंबर २०२४
 

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