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          दीप आस के


माना अँधियारा है भारी
उम्मीदों पर चलती आरी
सुख की गर्दन पर रहती है
छुरी दुःख की एक दुधारी
लेकिन हमको करनी होंगी
अन्वेशित
कुछ नयी दिशाएँ

प्रेम दाह से करना होगा
पंथ कंटकी वरना होगा
हस्ताक्षर लेकिन दिगंत के
पृष्ठ-पृष्ठ पर करना होगा
श्रम सीकर के क्षिप्र ताल से
बंधु बहाएँ
कुछ सरिताएँ

साध्य कठिन साधन हैं दुस्तर
मुखरित प्रश्न मौन हैं उत्तर
चिंताओं की गठरी सिर पर
पत्थर जैसा जो है गुरुतर
लेकिन पीडा़ की धरती में
मुस्कानों की
पौध उगाएँ

- सत्य प्रसन्न
१ नवंबर २०२४
 

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