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         माटी की मटकी


माटी की मटकी में दीपक जलता है
हिरण्यगर्भ यह सब अँधियारा
हरता है

मटकी जगमग है, दीवाली का दिन है
घोर अँधेरे में उजियाली का दिन है
खील बताशे पूजन
धूम धड़ाके हैं
लोग चतुर्दिक स्वस्ति-
कथाएँ गाते हैं
धरती से आकाश तलक आवाजें हैं

अभिनंदन के गुच्छे, गाजे बाजे हैं

समृद्धि है हर ओर अनोखी नवता है
उत्सव है इक धर्म
अहर्निश चलता है

दीप्ति दिये की जब इक दिन बुझ जाएगी
मटकी की जगमग उस दिन मुरझाएगी
खील बताशे पूजन सब
चुक जाएँगे
स्वस्ति कथाएँ लोग
भूल ही जाएँगे
माटी की मटकी खुद से मिल जाएगी
और मिलन का स्वर्ग अकेले पाएगी

दीवाली की पर्व यही तो कहता है
जीवन इसी चक्र में ही
तो चलता है

- पूर्णिमा वर्मन
१ नवंबर २०२४

 

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