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         दीप बन जाएँ


हम ही मंदिर के दीप बन जाएँ
आओ सागर की सीप बन जाएँ

दूर पर्वत पे बर्फ छाती है
ये हवा भी हमें थकाती हैं
या तो बादल बनें गगन के हम
याकि आँगन की धूप बन जाएँ

घर की दीवार में आले न रहे
अब उजाले भी उजाले न रहे
जैसे रखना है यह रखे दुनिया
हम किधर जाएँ और क्या पाएँ

अब अँधेरों से पार पाना है
जानते है कि जल ही जाना है
तेज धारों में भी संभलना है
चलो नदियों ते द्वीप बन जाएँ

- कमलेश कुमार दीवान

१ नवंबर २०२४
 

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