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         जलो जब तक


अंधेरे फैले हैं गंभीर
अमावस की है काली रात!
जलो जब तक हो जाय प्रभात!!

दूर-दृष्टि की बात कहाँ
मैं निकट निहार न पाऊँ
नीरवता चहुँ ओर भयानक
सोचूँ डर-डर जाऊँ
घूम रहे निर्भीक
अँधेरों के निर्मम व्यवसायी
जीव अकेला
दीप करे क्या?
किसका संबल पाऊँ?
सभी के मुरझा कुम्हला गए
अकेलेपन से आकुल गात!
जलो जब तक हो जाय प्रभात!!

सूख रहे सरिता सर पोखर
सागर में जल जाए
नग्न हुए गिरि-शृंग
सिमटते हरित वनों के साए
ठाँव उजड़ते उदर न भरते
श्रम का मोल न कोई
खोते गरिमा गाँव
नगर का मादक रूप लुभाए
निशाभर जलते कहाँ अलाव?
कहाँ अब चौपालों की बात?
जलो जब तक हो जाय प्रभात!!

राजमहल मदहोश
उनींदे शासन के गलियारे
साँठ-गाँठ में लीन पहरुए
करते हैं बँटवारे
हूक हिये में लिए तड़पते
पल-पल बोझिल मन के
देख रहे थे स्वप्न सजीले
लोचन व्यर्थ हमारे
हमारा धर्म सहज बलिदान
सुफल का अधिकारी अभिजात!
जलो जब तक हो जाय प्रभात!!

- डॉ जे पी बघेल

१ नवंबर २०२४
 

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