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        इस दिवाली


इस दिवाली ताख पे 
रक्खी दियरियाँ फेंक दीं

कई वर्षों बाद अपने गाँव-घर आना हुआ 
मँझले काकू क्या मिले मिल ही गया ताना मुआ
ओ भलेमानुष! तुम्हारे द्वार पर ताला पड़ा
मर गईं भौजी कहे
देहरी औ दरवाज़ा खड़ा
अल्पनाएँ घिस गईं 
तोरण गिरा आधा झड़ा
कुछ बचा तो बस कुएँ पर घर का एक फूटा घड़ा
जब खड़ा होता हूँ छत पे रो है पड़ती खाट भैंगी
अलगनी के छोर पर लटकीं
लुगरियाँ झेंप दीं

है वही घर, इसी आँगन दिए की लगतीं क़तारें
डालतीं माँ तेल, भौजी साजतीं छज्जे मिनारें
क्या कहें तुमको तुम्हारे अनुज-अग्रज सब पढ़े
पढ़े तो तुम बहुत बेटा
पर नहीं बिलकुल गढ़े
इस पढ़े और गढ़े के संग
गर कहीं होते कढ़े
सच मैं कहता हूँ तो दिखते गाँव की गुंबद चढ़े
बड़े भैया ने तुम्हें बाहर पढ़ाने के लिए
डाल की भौजी की बेंदी
और नथनिया बेंच दीं

आज तुम आए कि छुट्टी मिल गई त्योहार में
है कचहरी बंद बँटवारा छिड़ा परिवार में
तुम बताओ क्या करूँ किस-किस के भेजे में घुसूँ
बैल गँवई हुए शहरी
नाथ मैं कैसे कसूँ
इसलिए अब सोचता हूँ
क्यों ही लफड़े में फसूँ
तुम सभी जब धँस गए तो साथ में मैं भी धसूँ
सच कहूँ मनुहार की डांडी करे अब दंडवत
वंश की लौ तोलतीं प्यासी
तखरियाँ रेक दीं

- जिज्ञासा सिंह
१ नवंबर २०२४
 

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