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         तीन मुक्तक



महल कुटी में न भेद करता भले कहीं भी मुझे जलाओ
निपट अकेला भी मुस्कुराता या पंक्तियों में मुझे सजाओ
न चाँद सूरज मैं दीप हूँ पर उजास देकर जला अकेला
चुनोती देता हूँ ऐ अँधेरों मुझे ये तेवर नहीं दिखाओ


प्रकाश का पर्व है दिवाली रहे नहीं तम किसी के द्वारे
गरीब भूखा न सोये कोई न जागे दुख से भरा सकारे
विनीत शुभकामना सभी को सभी की ऐसे मने दिवाली
जलायें खुशियों के दीप हँसकर दरिद्रता का अँधेरा हारे


पधारें लक्ष्मी सभी घरों में दिवाली ऐसे चलो मनाएँ
जो दीप माटी से हों बने हम उन्हें खरीदें उन्हें सजाएँ
भरे हैं जो घर अपार धन से वृथा है तोहफ़े उन्हें न बाँटें
गुजारते हैं जो रूखी खाकर उन्हें भी उपहार दे हँसाएँ

- सीमाहरि शर्मा

१ नवंबर २०२३
   

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