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दीप जलाओ |
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दीप इतने तुम जलाओ,
द्वार सारा जगमगाये
राह को रोके खड़ा तम अब कहीं भी
टिक न पाये
झालरें फिर से खुशी की आँगने घर के सजेंगी
द्वार वन्दनवार घर घर नाद मंगल धुन बजेंगी
रोशनी के ताल में फिर आज सारा
जग नहाये
फन उठाये चल रहे, आतंक के पर्याय सारे
दाँव पर सारी मनुजता कौन जीते कौन हारे
भाव की बंजर धरा पर नेह की
नदियाँ बहाएँ
जय पराजय झूठ सच की, रोज कितनी ही कथाएँ
आम जन की एक भाषा, हर कथानक में व्यथाएँ
तोड़ कारा वेदना की अब हँसें
औ' खिलखिलाएँ
मोड़ दें हम रुख हवा का छोड़ दें अभिमान सारा
सत्य शाश्वत सत्य है इस तथ्य को किसने नकारा
चार पल की जिंदगी में भेद क्या
अपने पराये
- श्रीधर आचार्य 'शील'
१ नवंबर २०२३ |
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