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दीप-बाती |
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बाती बैठी दीप सँग,
मुख पर लगता तेल
रस्म रिवाजों बिन नहीं, सम्भव कोई मेल
टिमटिम छत से ताकती, सजी ज्योति बारात
झिलमिल-झिलमिल सूट में, नाचे मावस रात
टसुएं देखो मोम के, हवा दिखाये वेग
शगुन सहेली रूठती, दीपक देता नेग
पवन छेड़ता सूत को, दीपक देता ओट
आँख लाज से मिचकती, चमकी माथे गोट
ढ़ोल,पटाखे शोर में, डगमग लौ का नूर
तेल बिचौली कर रही, सारे भ्रम से दूर
महल अटारी रँग पुते, दीवारों पर झाल
फुलझडियों की देंह से, झरे सुनहरे बाल
देहरी पर दो दीप से, घर रोशन भरपूर
लक्ष्मी जी शुभ चरण चिह्न, लड्डू मोती चूर
जगमग घर अब दीप का, मिटता तम का जाल
दीपक-बाती मेल से, गलती घर की दाल
मावस ने रक्खा सदा, नाता तम से घोर
नन्हें सूरज भूमि ने, बिखराये चहुँ ओर
- त्रिलोचना कौर
१ नवंबर २०२३ |
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