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उजियारे
के बीज |
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याद हैं तुम्हें
उस बेहद अँधेरी रात में
पहाड़ियों के पीछे वाले जंगल के
घने झुरमुटों में
मिले थे हमें
मुट्ठी भर जुगनू,
रोप दिए हैं मैंने
उनमें से कुछ सूने आंगनों में,
कुछ सीले मनों के बंद दरवाजों पीछे
और कुछ चुपके से रख आई हूं
रिसती आँखों की देहरी पर,
अँधेरे की कोख में ही हैं पलते
उजियारे के बीज
तभी न
मावस में दीपोत्सव मनाने की
है बनी रीत,
तो, आओ न
इस बरस उतारें नाव
अपने भीतर पलते बीहड़ अँधियारे में
और खोज ही लाएँ
एक टापू उजियारे का
करता आलोकित भवितव्य पथ
एक दीप स्तम्भ।
- नमिता सुंदर
१ नवंबर २०२३ |
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