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फुलझड़ियाँ
चलती रहीं |
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छज्जे पर चढ़ सज रही,
उजली सी कंदील।
आँगन में रंग भर रही, फुलझड़ियों की खील।।
खील बताशे झालरें, खुशियों की सौगात।
फुलझड़ियाँ चलती रहीं, सजी अमावस रात।।
बाँची पाती प्रीत की, तजकर सारे काज।
फुलझड़ियाँ चुगली करें, खोलें सारे राज।।
मेले ठेले बिक रहे, फुलझड़ियाँ महताब।
बालमनों में सज रहे, उम्मीदों के ख्वाब।।
नयी उमंगें उठ रहीं, दीपक जलते द्वार।
खुशियों में डूबा रहा, सारा घर संसार।।
सियाराम लौटे अवध, मची नगर में धूम।
दीप जलाकर थाल में, रही अयोध्या झूम।।
झर-झर-झर झरती रही, फुलझड़ियों की धार।
दूर अँधेरा कर दिया, आलोकित घर बार।।
खिलखिल हँसते जा रहे, चरखी और अनार।
झिलमिल करती फुलझड़ी, रोशन है संसार।।
जनता को भड़का रहे, बैठे ठलुआ लोग।
यों फुलझड़ियाँ छोड़ना, बहुत बुरा है रोग।।
- पारुल तोमर
१ अक्टूबर २०२२ |
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