चहक रही है फुलझड़ी,
चकरी गाए गीत।
आया पर्व प्रकाश का, अंधकार भयभीत।।
जगमग घर, आँगन करें, मन में भरें उमंग।
खुशियाँ इतराती फिरें, फुलझड़ियों के संग।।
जलते दीपक से बढ़ी, अँधियारे की पीर।
फुलझड़ियों ने और भी, उसको किया अधीर।।
गीत गा रही फुलझड़ी, झर-झर झरते छंद।
विह्वल होकर देखते, चमकीले मकरंद।।
अंगारों से फुलझड़ी, खेल रही है फाग।
शायद जलते दीप ने, सुलगा दी है आग।।
सील गयी थी फुलझड़ी, तबियत है नासाज़।
गुमसुम हैं चिनगारियाँ, गायब है आवाज़।।
खील, बताशे, रेवड़ी, मधुर-मधुर पकवान।
किन्तु पटाखे, फुलझड़ी, पर है सबका ध्यान।।
बीच पटाखों के छिड़ी, जंग बड़ी घनघोर।
किन्तु पटाखे, फुलझड़ी, खींचें अपनी ओर।।
फूल उगलती फुलझड़ी, खुश हो रहा अनार।
देख पटाखा जल गया, फटा धमाकेदार।।
दिए जले रोशन हुआ, घर, आँगन, दालान।
फुलझड़ियों ने खींच दी, होठों पर मुस्कान।।
- कृष्ण कुमार तिवारी
१ अक्टूबर २०२२