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         जली रहना कंदीलों


अनजान कुहरों के पार
मन की राहें
जब विवश हो जायँ
छीन लें कोई जागती उम्मीदें
इस चौखट, उस ताखे पर
तन्हा बरगद के तले
जली रहना कंदीलों


ज़ब आहत हो मन
कुहासा कंबल ओढ़े बैठा हो
पगडण्डी निद्रा में हो लीन
दृश्य धुँधले हो जाएँ
तब तुम
रौशन कंदीलों में
स्वर्णिम पंख लगा जाना


साँझ ढले
अटरियों पर टँगी सुलग सुलग
कितना आलोक बिखराती हो
भटक गए पथिकों को
सन्मार्ग दिखाती हो
यों कंदील कहलाती हो

अंधकार गहन हुआ
पाँव धँसी कील
दूर अटरिया पर
फिर जाग उठी कंदील


ये ज़िद हमारी हैँ
इसी इरादे पर
दुनिया की जंग जारी हैँ
कंदीलों को बचाना ही तो
समुद्र की जिम्मेदारी हैँ
एक छोटी सी कंदील भी
बड़े तूफान पर भारी है

- मंजुल भटनागर

१ नवंबर २०२१

     

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