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         हृदय कंदील

बींधती है देह को दर्द की जब कील
काँप उठती है हृदय-कंदील

मौसमी बदलाव से सहमा हुआ
टूटते घर का खुला छप्पर
ग्रेजुएट के हाथ में ठेला
भूल बैठा है सभी अक्षर

चीखती है अपशकुन आसमां पर चील
काँप उठती है हृदय-कंदील

डामरीकृत राह में घिसते हुए
नर्म पाँवों के थके तलवे
पेट भरने की जुगत साधे
मंडियों में रूप के जलवे

भीगती है रक्त से न्याय की इंजील
काँप उठती है हृदय-कंदील

- शरद सिंह

१ नवंबर २०२१
     

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