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         साँझ की प्रतीक्षा

साँझ बैठी रही इक प्रतीक्षा लिए
कोई कंदील आकर टँके द्वार पर
था विदित चाँद को आज आना नहीं
पत्र खोई हुई नीम की शाख़ पर

मावसों की सहेली
खड़ी मोड़ पर हाथ में एक कोरा निमंत्रण लिये
लिख--पाई-पता,-रोशनी-के-बिना-जुगनुओं-के-महज-टिमटिमाये-दिये
शेष चिंगारियां भी नहीं रह गईं शीत के बुझ चुके एक आलाव में
हर लहर तीर के कोटरों में छुपी सारी हलचल
गई डूब तालाब में

रिक्त ही रह गईं पुष्प की प्यालियाँ
पाँखुरी के परिश्रम वॄथा हो गये
नभ से निकली तो थी ओस की बूँद पर
राह में रुक गई वो किसी तार पर

झाड़ियों के तले
कसमसाती हुई दूब के शुष्क ही रह गये फिर अधर
डोर-थामे-किरण-की-उतर--सका-एक-तारा-तनिक-सी-सुधा-बाँह-भर
स्याह चादर लपेटे हुए राह भी पी गई जो कदम मार्ग में था बढ़ा
रोशनी को ग्रहण था लगाता हुआ इक दिये का
तला मोड़ पर हो खडा

शून्य पीता रहा मौन को ओक से
ओढ़ निस्तब्धता की दुशाला घनी
सुर का पंछी न कोई उतर आ सका
बीच फैला हुआ फासला पार कर

न तो पहला दिखा और
ना आखिरी हर सितारा गगन के परे रह गया
आज कंदील-की-हो-गई-रहजनी-कंपकंपाता-हुआ-इक-निमिष-कह-गया
धुंध-रचती-रही-व्यूह-कोहरे-से-मिल-यों-लगे-अस्मिता-खो-चुकी-हर-दिशा
पोटली में छुपी रह गई भोर भी देख विस्तार
करती हुई यह निशा

हाथ संभव नहीं हाथ को देख ले
चक्र भी थम गया काल का ये लगे
कोई किश्ती नहीं सिन्धु गहरा बहुत
रोशनी का बसेरा है उस पार पर

राकेश खंडेलवाल
१ नवंबर २०२१

     

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