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         चाँद अँधेरों का

छप्परों की शाख़ पर, खिल गई कंदील
ज्यों चाँद हो अँधेरों का

त्योहार दीपों का महज़ पर्व नही कोई
जाग अंतर्मन की है, जो थी रही सोई
चाहते जो दूर तलक रौशनी ले जाना
धुएँ से दीपों की लौ को होगा बचाना

चीर के तम विचारों का, उगी कंदील
ज्यों सूर्य हो सवेरों का

जब कभी कंदील के सब दीप झिलमिलाए
राह में तमस की लगे, जुगनू टिमटिमाए
फूटता है प्रकाश अँधेरों के ही भीतर
सीख यही देती कंदीलें, ऊँचें जाकर

लिए अंतस उजाला, यों जली कंदील
ज्यों दीप हो मुँडेरों का

न पड़े जीवन में करना कोई समझौता
हौसलें हों साथी, तो हर काम मनचीता
सपनों की रंगीन झालर टाँग फिर आएँ
दीप बालें ज्ञान के, चहुँ ओर जगमगाएँ

न रहे कोई अभाव , कह रही कंदील
सँकल्प है बहुतेरों का

- आभा खरे
१ नवंबर २०२१

     

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