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दीप माटी के जलाएँ
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दीप माटी के फिर से जलाएँ
प्रिये
ये दिवाली जड़ों से ही जुड़ना जो है
रस्म - त्योहार अपने मनाते चलें
इस धरा पे हमें प्राण! रहना जो है
हम तो विकसित हुए लोग कहते सभी
ऋण तो माटी का हमपर अधिक है मगर
हम चले जा रहे पर कहाँ दिग्भ्रमित
लक्ष्य अपना है क्या, कौन-सी है डगर !
सबसे अच्छे बनाये थे हम रास्ते
उसपे चलके हमें फिर सँभरना जो है!
छोड़ धरती को, नभ में न विचरण करें
क्या ये संभव कि माटी -बिना हम जियें !
छोड़ जननी, बछड़ू हम बने अन्य के ?
त्याग गंगा को, नाली का पानी पियें ?
माथ माटी चढ़ाएँ, नमन भी करें
इसकी गोदी में हमको विहरना जो है
लो,चकाचौंध चारों तरफ छा रही
है मगर मन ये अपना तो बेचैन ही
धन की बारिश हुई जा रही है मगर
हम बिना नींद, सोये मुंदे नैन ही
नेह के दीप फिर से जलाएँ प्रिये
प्रेम से -प्यार से साथ रहना जो है!
- हरिनारायण सिंह हरि
१ नवंबर २०२० |
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