इस दिवाली आप गृहलक्ष्मी
किसी आँगन की होंगी
इस दिवाली पर यहाँ यादों का एक दीपक जलेगा
सर पे आँचल ओढ़कर के कुल वधू जिस घर की हो तुम
अपनी नाजुक उँगलियों से चौक पूरोगी शगुन की
दीपमाला की कतारें भी सजेंगी द्वार तेरे
और नयनो में प्रतीक्षा लक्ष्मीजी के आगमन की
दीप का उत्सव मनाओ खूब फुलझड़ियाँ छुटाओ
तब हमारे मन में आँसू का कोई पर्वत घुलेगा
इस दिवाली हम तुम्हारे कुछ पुराने खत पढ़ेंगे
जिन खतों की रौशनी में झिलमिलाती जिंदगी थी
रात छत पर बैठ करके देख आतिशबाजियाँ फिर
सोचेंगे हिस्से में मेरे सिर्फ तेरी बंदगी थी
एक मेरे नाम का दीपक जलाना हो सके तो
देखना वो दीप सब दीपो से कुछ ज्यादा जलेगा
कल कहीं पर जब "जुए की फड़" को देखा याद आया
हम तो अपनी जिंदगी का दाँव कब का हार बैठे
भाग्य से प्रतिद्वंदिता थी और हम बिलकुल अकेले
तुम को जाता देखते थे द्वार पर लाचार बैठे
प्रेम इठलाता था अब तक भाग्य को निर्बल समझ कर
भाग्य फिर से प्रेम के मुँह पर नयी कालिख मलेगा
- स्वयं श्रीवास्तव
१ नवंबर २०१८ |