अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


मैं जलाऊँ दीप मन के

   



 

द्वार दीपक तुम सजाओ
मैं जलाऊँ दीप मन के

जानता है आज नभ भी
दीप्त मन की भावनाएं
झाँकती है खिड़कियों से
रोशनी बन कामनाएँ
है अमावस रात फिर भी
छंद रचता है सृजन के

इस निबिड़ में दीपमाला
ही बनेगी साधिका जब
चैन की मुरली सुनेगी
है अमन की राधिका तब

शांति के संदेशवाहक
उड़ चलेंगे पार घन के

घूमता है आज जीवन
लालसा के जिस वलय में
छद्म छल दोनों प्रपंची
हैं समाहित इस प्रलय में

मातु लक्ष्मी ही हरेंगी
वेदना संताप जन के

खूब फूटेंगे पटाखे
धार खुशियों की बहेगी
किन्तु पीड़ा निज हृदय की
ये धरा किससे कहेगी

सादगी से ही निभायें
रीति हैं जो युग चलन के

- श्रीधर आचार्य शील
१ नवंबर २०१८

   

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter