द्वार दीपक तुम सजाओ
मैं जलाऊँ दीप मन के
जानता है आज नभ भी
दीप्त मन की भावनाएं
झाँकती है खिड़कियों से
रोशनी बन कामनाएँ
है अमावस रात फिर भी
छंद रचता है सृजन के
इस निबिड़ में दीपमाला
ही बनेगी साधिका जब
चैन की मुरली सुनेगी
है अमन की राधिका तब
शांति के संदेशवाहक
उड़ चलेंगे पार घन के
घूमता है आज जीवन
लालसा के जिस वलय में
छद्म छल दोनों प्रपंची
हैं समाहित इस प्रलय में
मातु लक्ष्मी ही हरेंगी
वेदना संताप जन के
खूब फूटेंगे पटाखे
धार खुशियों की बहेगी
किन्तु पीड़ा निज हृदय की
ये धरा किससे कहेगी
सादगी से ही निभायें
रीति हैं जो युग चलन के
- श्रीधर आचार्य शील
१ नवंबर २०१८ |