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तन तो क्या, मन तक समृद्धि
का
आना है दुष्कर
भूख-प्यास रूपी दरिद्रता!
छोड़ो मेरा घर
जीवन-भर की खींचतान में
गुम वैभव के चिह्न
नीति और ब्यौहारिकता के
पथ युग-युग से भिन्न
गुणा-भाग में गयी जवानी
बूढ़ी हुई उमर
द्वंद्व और भ्रम-विभ्रम बहुविध
चित रखते अवसन्न
दिवस गए राजा के खा-खा
आश्वासन के अन्न
ऐसे में इन त्यौहारों का
आना क्या शुभकर
क्षमा किया जा तुझे स्वारथी!
तेरे सब करतब
बिगड़े-बिगड़े रहे हमेशा
इस जीवन के ढब
लक्ष्मी को भी घर आने दे,
विनय जोड़ दो-कर,
ओ जेठी बहना दरिद्रता!
फैला अधिक न पर
- पंकज परिमल
१ नवंबर २०१८ |