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फिर मुस्कुराऊँ

   



 

मिट सके अँधियार जिद्दी
एक दीपक तेल भरकर बार दूँ
फिर मुस्कुराऊँ

एक दीपक सरहदों पर
एक ऐसे गेह जिसका लाल
लौटा ही नहीं परदेश जाकर
एक को रख जेल की दहलीज पर
जिसमें न जाने कैद कितने हो गए
बिन जुर्म के चुपचाप आकर
मिट सकें सन्ताप बेकल
एक दीपक मेल भरकर बार दूँ
फिर मुस्कुराऊँ

एक दीपक रूढ़ियों पर
एक ऐसी जगह जिसपर जी रहीं हों
भ्रांतियाँ सुख-चैन पाकर
एक ऐसे मोड़ पर जिसपर
रखे न सैनिकों ने कदम अपने
और न ही जीत लाकर
मिट सके नैराश्य बदरँग
एक दीपक खेल भरकर बार दूँ
फिर मुस्कुराऊँ

एक दीपक खाइयों पर
एक उस विश्वास के गिरि जो हुआ
दिगभ्रमित बौड़म, नेह खोकर
एक मंदिर में नहीं निज नयन में
जिसकी किरण जगमग रहे
हर ओर अपना प्रेम बोकर
मिट सके आक्रोश जंगम
एक दीपक हेल भरकर बार दूँ
फिर मुस्कुराऊँ

- कल्पना मनोरमा
१ नवंबर २०१८

   

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