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क्या होता किरनों का होना, कभी नहीं जिसने जाना
एक दीप इस दीवाली पर उस दर पर भी रख आना
हँसते -हँसते जिसने अपने सीने पर खायी गोली,
दुश्मन की छाती पर चढ़ कर जय-माँ की जय-जय बोली
संगीनों ने हर मौसम सरहद पर जिसे सलाम किया-
सरहद पर ही मनी उम्र-भर जिसकी दीवाली-होली
सोया है चिर- मौन जहां पर आज़ादी का दीवाना-
एक दीप इस दीवाली पर उस दर पर भी रख आना
लिक्खा पुण्य पसीने से जिसने अपना जीवन - लेखा
श्रम की स्याही से निर्मित है जिन हाथों की हर
रेखा
भूखा रहा स्वयं , लेकिन जिसने दुनियाँ का पेट भरा-
बुनियादों का पत्थर बन जो रहा हमेशा अनदेखा
शीश महल के दीप्त-दर्प ने कभी न जिसको पहचाना -
एक दीप इस दीवाली पर उस दर पर भी रख आना
युग-युग से जिसके हिस्से मे आयीं हैं केवल रातें
सूरज ने दीं उजियारों की जिसको छूंछी सौगातें
अपने-सा ही समझा जिसने इनको और कभी उनको-
पग-पग मिलती रहीं किन्तु जिसके विश्वासों को घातें
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नई सुबह के इंतज़ार मे भूल गया जो मुस्काना-
एक दीप इस दीवाली पर उस दर पर भी रख आना
- जय चक्रवर्ती
१ नवंबर २०१८ |